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कविता

दुःख एक नहीं

विमलेश त्रिपाठी


दुख एक नहीं यह कि सड़क पर किसी मनचले की तरह
इन्तजार नहीं किया अपनी तीसरी
या चौथी
याकि पाँचवीं प्रेयसी का

दुःख दो नहीं यह
कि क्यों शहर के खुले मिजाज की तरह खुली
लड़कियों को
मेरे पिचके गालों की घाटी
और दाढ़ियों के बीहड़ में गुम हो जाने का डर लगता है

दुःख तीन नहीं यह
कि बस का बदबूदार कंडक्टर
हर बार हमसे ही ताव दिखाता है
जबकि बिना टिकट मैं कभी यात्रा नहीं करता

दुःख चार नहीं यह
कि फूल कर कछुआ हो गया सेठ
अपनी रखनी का गुस्सा हर सुबह
मेरे ही मुँह पर पीचता है
जबकि याद नहीं किस वक्त मैंने कौन कसूर किया था

दुःख पाँच नहीं यह
कि पत्नी के लाख कहने पर भी
खइनी नहीं छोड़ पाया
स्कॉच के साथ क्लासिक के कश नहीं लिये
महानगरी हवाओं से नहीं की दोस्ती
और भुच्चड़ का भुच्चड़ ही बना रहा

दुःख छह नहीं यह
कि खूब गुस्से में भी दोस्तों को गालियाँ नहीं दीं
आजतक सम्बन्धों की एक भारी गठरी पीठ पर लादे
बेतहासा भागता रहा चुपचाप अकेले
दुःख सात दस हजार या लाख नहीं

दुःख यह मेरे बन्धु
कि सदियों हुए माँ की हड्डियाँ हँसीं नहीं
पिता के माथे का झाखा हटा नहीं
और बहन दुबारा ससुराल गयी नहीं

दुःख यह मेरे बन्धु
कि बचपन का रोपा आम मँजराया नहीं
कोयल कोई गीत गायी नहीं
धरती कभी सपने में भी मुस्करायी नहीं
और दुःख यही मेरे साथी
कि लाख कोशिश के बावजूद इस कठिन समय में
कोई भी कविता पूरी हुई नहीं...

 


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